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                                                                                          Gita Manthan Series Volume III "KARMA YOG"

 

गीता पर आधारित किसी भी ग्रन्थ के सामने आने पर सामान्य व्यक्ति का ध्यान तत्क्षण कर्मयोग की तरफ़ जाता है प्रस्तुत ग्रन्थ गीता मन्थन (श्रीमद्भगवत् गीता-तृतीय अध्याय) का नाम तथा प्रतिपाद्य विषय ही कर्मयोग है

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मोहग्रस्त अर्जुन को अनेक विधियों से समझाया, आत्मा की अमरता का उपदेश दिया; पुन: सारतत्व के रूप में कहा उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: (अर्जुन! तुम युद्ध के लिए निश्चय के साथ खङे हो जाओ) |

गीता में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के साथ ही सांख्ययोग, ध्यानयोग तथा भक्तियोग का भी उपदेश दिया । उन्होंने कहा अर्जुन  क्लैवय से मुक्त हो जाओ । धर्म और अधर्म का यह संधर्ष एककालीन नहीं है, सदा से होता आया है और अनन्तकाल तक चलने वाला है । धर्म का अधर्म से न कभी समझौता हुआ है, न होगा । यदि तुम स्वधर्म के लिए संघर्ष नहीं करोगे तो जाने वाली पीढियों तुम्हारे प्रति क्या सोचेंगी? उन्हें तुम उत्तराधिकार में क्या दोगे?

अर्जुन के विचार नई चेतना के साथ प्रस्फुरित होते हैं- मैं धर्म और सत्य की रक्षा के लिए कृतसंकल्प हूँ असम्मानपूर्वक जीने से सम्मानपूर्वक मृत्यु का वरण करना अधिक श्रेयस्कर है स्थितो-असिम गतसन्देह: करिष्ये  वचनं तव (मैं अब संशय रहित हूँ आपके वचनों का पालन करूंगा) |

                 तृतीय अध्याय का सार-संक्षेप Click Here To Read

                    विषयानुक्रमणिका

श्लोक 1-2:   ज्ञान और कर्म क्रो श्रेष्ठत्ता के बिषय में अर्जुन की शंका श्रीभगवान् से अपना ऐकान्तिक श्रेय साधन बताने  के लिये प्रार्थना

श्लोक 3-7:    श्रीभगवान् द्वारा अधिकारी-भेद से दो निष्ठाओं का वर्णन, किसी भी निष्ठा को सिंद्धि हेतु कर्मो को स्वरुप से त्याग करने का            निषेध तथा श्रणमात्र के लिए भी कर्मो का सर्वथा त्याग असम्भव बताते हुए अनासक्तभाव  से विकर्म करने क्रो प्रशंसा

श्लोक 8-9:    कर्म करने की अपेक्षा कर्मो का करना श्रेष्ट, कर्मो के बिना शरीर का निर्वाह असम्भव के कथन के साथ   नि :स्वार्थ और            अनासक्तभाव से विहित कर्म करने की आज्ञा

श्लोक 10-12:   प्रजापति की आज्ञा होने के कारण यज्ञार्थ कर्मों की अवश्य कर्तव्यता का कथन

श्लोक 13:     यज्ञशिष्ट अन्न से सभी पापों का नाश और मात्र अपने शरीर पोषण हेतु अन्न पकाने वालों को पापी की  संज्ञा

श्लोक 14 -16:  सृष्टि चक्र का वर्णन, सर्वव्यापी परमात्मा क्रो यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठा तथा सृष्टिचक्र के अनुकूल वर्तन करने वाले की निन्दा |

श्लोक 17-19:  आत्मज्ञानी के लिए कर्म करने और करने में प्रयोजन का अभाव तथा अर्जुन क्रो अनासक्त भाव से कार्य करने की प्रेरणा

श्लोक 20-24:   कर्म द्वारा ही जनक आदि के परम सिद्धि प्राप्त करने, श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण प्रमाण स्वरूप माने जाने, तथा कर्म करने के संबन्ध             में स्वयं श्रीमगबान् का अपना दृष्टान्त देना

श्लोक 25-26:  ज्ञानी पुरुष के लिए भी संग्रह हेतु स्वयं कर्म करने तथा दूसरों से मी करवाने का विधान

श्लोक 27-29:   अज्ञानी का लक्षण, ज्ञानयोगी की विलक्षणता तथा इनके द्वारा मन्दबुद्धि अज्ञानियों को कर्मो से विचलित करने का निषेध

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