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                                                                                        Gita Manthan Series Volume II "SANKHYA YOG"

गीता का यह "सांख्ययोग" नामक द्वितीय अध्याय है जिसमें गीता के सम्पूर्ण तत्वज्ञान का सार प्रारम्भ में ही उपलब्ध हो जाता है । किसी विषय का तत्त्वत:, युक्तिपूर्वक, भलीभाँति यथार्थ निरूपण करने का नाम "सांख्य" तथा आध्यात्मिक शक्तियों के परमात्मा से संयोग का नाम "योग" है।अर्थात् तात्विक ज्ञान से आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लेना ही "सांख्ययोग" है । द्वितीय अध्याय में सांख्ययोग के साथ ही कर्मयोग तथा भक्तियोग का भी वर्णन है किन्तु अध्याय के आरम्भ में ही सांख्ययोग की विवेचना तथा अध्याय का प्रमुख विषय होने के कारण अध्याय का नाम सांख्ययोग" है । गीता में ही इसे अन्य स्थलों पर सांख्यनिष्ठा, ज्ञानयोग तथा संन्यासयोग भी कहा गया है ।

                       द्वितीय अध्याय का सार-संक्षेप  Click Here To Read

                            विषयानुक्रमणिका

श्लोक  1 :     संजय द्वारा अर्जुन के विषाद का वर्णन; श्रीभगवान् का अर्जुन से अपना वचन कहने के लिए उन्मुख होना।

श्लोक  2-3 :   श्रीभगवान् दृारा अर्जुन के विषाद की निन्दा तथा युद्ध के लिए उत्साहिंत करना

श्लोक  4-10 अर्जुन का उत्तर, विषाद् क्या कर्तव्यमूढता उचित निर्देश हेतु श्रीभगवान् के शरणागत होना।

श्लोक  11-13 :  श्रीभगवान् का गीतोपदेश प्रारम्भ आत्मा की नित्यता एवम् निर्विकारिता का निरूपण

श्लोक  14-15 : देह और सुख दुख की अनिंत्यता

श्लोक  16-25:  सत्-असत् विवेक और आत्मा को : विकारों से रहित, उसके अन्य स्वरूपों के वर्णन के सस्था आत्मा के लिए शोक करने कथन

श्लोक  26-27: आत्मा को जन्मने-मरनेवाला मानने पर भी शरीर की अनित्यता को समझकर शोक करने का निषेध

श्लोक 28:     सांख्य दर्शन के अनुसार भी शरीरों की अनित्यता के कारण शोक करने का अनौचित्य

श्लोक 29-30:  आत्मतत्व के द्रष्टा वक्ता और श्रोता बने दुर्लभता का प्रतिपादन आत्मा के सर्वथा अवध्य होने के कारण किसी भी प्राणी द्वारा इसके

                         लिए शोक करने का अनौचित्य

श्लोक 31-38:    क्षात्रघर्म के अनुसार युध्द करने की आवश्यक्ता तथा पाप से निर्लिप्त रहने का उपाव-समत्व योग

श्लोक 39-40:    सांख्य मार्ग अनुसार विषय की समाप्ति और कर्मबन्धन को काटने वाली कर्मयोग विषयक बुद्धि के वर्णन की प्रस्तावना तथा कर्मयोग

          की महिमा

श्लोक 41:    निश्चयात्मिका बुद्धि और अव्यवसायी सकाम पुरुषों की बुद्धियों का भेदनिरूपण

श्लोक 42-44:   कर्मकांङ के अनुयायी मीमांसर्को की अस्थिर बुद्धि का वर्णन

श्लोक 45:         अर्जुन को निष्कामी और 'आत्मसंयमी होने के लिए निर्देश

श्लोक 46:         ब्रहाज्ञ ब्राह्मण के लिए वेदोक्त सुखयोग को  अप्रयोजनीयता का कथन

श्लोक 47:     कर्मयोग की चतु: सूत्री

श्लोक 48-50:   कर्मयोग का लक्षण और कर्ता को बुद्धि तथा समभाव की श्रेष्ठता

श्लोक 51-53:  कर्मयोग से मोक्षप्राप्ति

श्लोक 54-60:  स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षण के सम्बन्ध मेँ अर्जुन के चार प्रश्न तथा श्रीभगवान् का समाधान। तीन प्रश्नों के उत्तर और प्रसंगानुसार इन्द्रियाँ

                         मन तथा विषयासक्ति की विवेचना ।

श्लोक  61-67: भक्तियोग तथा भक्ति परायणता का निर्देश विषय चिन्तन से पतन का क्रम तथा अर्जुन के चौथे प्रश्न का उत्तर देते हुए राग-द्वेष से रहित                होकर  कर्म करने से प्रसाद की प्राप्ति का कथन

श्लोक 68-70:  स्थिर बुद्धि तथा तत्त्ववेत्ता पुरुष के लक्षण; समुद्र के उदाहरण से ज्ञानी महापुरुष - स्थितप्रज्ञ की महिमा का कथन

श्लोक 71-72:  ब्राही स्थिति

 

                                                 पुराण की दृष्टि में द्वितीय अध्याय   Click Here To Read

 

इस अध्याय में आदर्श जीवन जीने की इच्छा रखने वाले तथा आध्यात्मिक साधकों के लिए मानब जीवन के तीन प्रमुख तथा आधारभूत साधनों की तथा जीवन के सर्वोच्च परमार्थिक लक्ष्य के रूप में दो स्थितियों की तात्विक विवेचना की गई है।

साधन हैं :

1- आत्माकी अमरता-अखंडता-व्यापकता

 2-शरीर के नाशवान होने तथा

3- स्वधर्मं और कर्मयोग की महानता का बोध

स्थितियाँ हैं :

1-स्थितप्रज्ञता तथा इससे प्राप्त

2-ब्राह्मी स्थिति।

 द्वितीय अध्याय की समाप्ति श्रीभगवान् द्वारा अर्जुन के प्रति ब्राह्मी स्थिति के  माहात्म्य वर्णन के साथ की गयी है

 

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