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                                                                              Gita Manthan Series Volume I "ARJUN VISHAD YOG"

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को माध्यम बनाकर सम्पूर्ण जगत को जो उत्कृष्ट उपदेश दिया; गीता का यह "अर्जुनविषादयोग" नामक प्रथम अध्याय उसका आधार हैं।प्रतेक मनुष्य प्रायय, मोह; ममता, अहंता आदि विषाद-जनय विकारों से ग्रसित है । जो व्यक्ति हन समस्याओं से जितना अधिक प्रभावित हैं; गीतोपदेश उसके लिए उतना ही अधिक उपयोगी हैं। इस अध्याय में अर्जुन द्वारा व्यक्त विवाद का ही सुफल है की आगे चलकर श्रीभगवान् ने दूसरे अध्याय से गीता का दुर्लभ तत्व-ज्ञान प्रदान करना आरम्भ किया ।

                 प्रथम अध्याय का सार-संक्षेप  Click Here To Read

                     विषयानुक्रमणिका

श्लोक-1:     धृतराष्ट्र का संजय से युद्ध-विवरण-विषयक प्रश्न ।

श्लोक-2:     दुर्योधन का आचार्य द्रोण के पास जाकर बातचीत करना ।

श्लोक 3–6:   दुर्योधन का आवार्य द्रोण से विशाल पाण्डव सेना देखने के लिए प्रार्थना तथा पाण्डव सेना के प्रमुख योद्धाओं के नाम ।

श्लोक 7-9:   दुर्योधन दृारा आचार्य द्रोण से अपनी सेना के प्रधान सेनानायकों को भली-भाति जानने के लिए प्राथना; उनमे से कुछ के नाम

            तथा पराक्रम का वर्णन ।

श्लोक 10:    दुर्योधन का पाण्डव सेना की अपेक्षा अपनी सेना को अजेय बतलाना ।

श्लोक 11:    दुर्योधन का सभी वीरों से भीष्म की रक्षा के लिए अनुरोध ।

श्लोक-12-13:  भीष्म दृारा शंखनाद तथा कौरव सेना द्धारा विभिन्न वाहृ एक साथ बजाना ।

श्लोक 14-19:  श्रीकृष्ण पाण्डवों तथा पाण्डव सेना के अन्य योद्धाओं द्धारा शंखनाद जिसे सुनकर दुर्योधन आबि का व्यथित होना।

श्लोक 20-23:  अर्जुन का श्रीकृष्ण से अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले चलने तथा सभी विपक्षी योद्धाओं को देखने तक वहीं खड़ा

            रखने का अनुरोध । 

श्लोक 24-25:  श्रीकृष्ण दृारा रथ को सेनाओं कें मध्य खड़ा करना और कुरुवंशियों को देखने के लिए कहना ।

श्लोक 26-30:  अर्जुन दृारा स्वजन समुदाय को देखकर व्याकुल होना तथा अपनी शोकाकुल स्थिति का वर्णन।

श्लोक 31-33:  अर्जुन दृारा युद्ध के विपरीत परिणाम का वर्णन तथा विजय और राज्य-सुख न चाहने की युक्तिपूर्ण दलील ।

श्लोक 34-35:  आचार्यादि स्वजनों का वर्णन तथा अर्जुन दृारा इनकों न मारने की इच्छा व्यक्त करना ।

श्लोक 36-37:  आततायी होने पर भी दुर्योधनावि स्वजनों को मारने में पाप की प्राप्ति और सुख तथा प्रसन्नता का अभाव वतलाना ।

श्लोक 38-44:  अर्जुन द्वारा कुल के नाश और मित्रद्रोह के पाप से बचने के लिए युध्द न करने का औचित्य बतलाते हुए कुल-नाश से उत्पत्र

            होने वाले दोषों का वर्णन ।

श्लोक 45-46: राज्य-सुख के लोभ से स्वजनों को मारने की युद्ध की तैयारी को पाप वतलाते हुए अर्जुन दृारा दुर्योधनादि के हाथों स्वयं को मारे

            जाने को श्रेयष्कर बताना ।

श्लोक 47:    युद्ध न करने का निश्चय करके शोकामग्न अर्जुन दृारा शस्त्र त्याग कर रथ के मध्य में बैठ जाना ।

   

                     पुराण की दृष्टि में प्रथम अध्याय  Click Here To Read

 
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