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      अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |

    उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |

       गीता मंथन  

दुनियाँ में श्रीमद् भगवद्गीता के सदृश ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है जिसे भगवान ने गीता से हृदयं पार्थ कहकर अपना हृदय बताया हो। अत: गीता सभी ग्रन्थों में अद्वितीय है ।

गीता मर्मज्ञों के मत से यदि टीका की प्रस्तुति प्रत्येक अध्याय के साथ उसकी पृष्ठभूमि अर्थात् अवतरिणका, विषयानुक्रमणिका, अध्याय की समाप्ति पर अध्याय के सार-संक्षेप तथा पुराण की दुष्टि में अध्याय के माहात्म्य आदि ओर प्रत्येक श्लोक की विस्तृत व्याख्या के साथ उसके सन्दर्भ, पदच्छेद, श्लोक के अन्वय-प्रत्येक शब्द के अर्थ क्या गूढार्थ आदि के साथ की जाय तो वह प्रारम्भिक साधकों सहित सभी के लिए पूर्णतया ग्राह्य हो सकती है उनका यह भी कथन है कि ये सभी बातें किसी भी हिन्दी टीका में एक साथ उपलब्ध नहीं हैँ जिससे अनेक टीकायें एक साथ देखनी पड़ती हैं।गीताचार्यों/मर्मज्ञों के इस विचार का ध्यान रखकर इस टीका में सभी बातों का एक साथ समावेश करते हुए तथा गम्भीर साधकों के लिये भी उपयोगी सामग्री के साथ दूसरी टीकाओं की अपेक्षा इसे विशिष्ट ढ़ग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

व्याख्या में प्रत्येक पद की विवेचना करते हुम श्लोक के प्रत्येक अंश को समुचित स्थान देने के साथ ही नये प्रयोग के रूप में गीता में वर्णित तथा व्याख्याक्रम में सन्दर्भ में अवि पाव, वस्तु तथा स्थान के विषय में भी पूर्ण जानकारी ही गई है जिससे कि ये साधक को कल्पित लगकर वास्तविक तथा ऐतिहासिक लगे। साथ ही किसी मत विशेष का पक्षधर होकर महाभारत, उपनिषदों तथा अन्य धर्मग्रन्धों का आघार लेकर इस टोका के निरपेक्ष, स्वतंत्र तथा यथार्थ प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य जाता के साधक को मनन हेतु पर्याप्त आमार देना है ।

यह प्रयास किया गया है कि रोचक्तापूर्ण सरल भाषा, विस्तृत एवं तैलधारावत प्रस्तुतीकरण के प्रयास से आकृष्ट होकर पाठक के मन में गीता से जुड़े रहने का भाव प्रबल हो जाये तथा गीतोपदेश से  अनुप्राणित होकर वह अपना कल्याण कर सके |

 मेरे लिए गीता साधन भी है और साध्य भी। गीता  सभी अध्यायों पर अन्य टीकाओं से विलक्षण अलग-अलग टीकाओं का प्रस्तुतीकरण तथा लोगों को सर्वकल्याणमयी गीता के प्रति आकृष्ट करना मेरी साधना है। आगे की अपनी मंजिल गीता प्रेमी स्वयं तय करें।

अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है; इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |                                               डॉ. मदन जी श्रीवास्तव  
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